Sunday 22 May 2016

एक तुम ही नहीं मेरी जुदाई में परेशां..

जिन राहों पे एक उमर तेरे साथ रहा हूँ
कुछ रोज़ से वो रास्ते सुनसान बहोत हैं

मिल जाओ कभी लौट के आओ न शायद
कमज़ोर हूँ मैं राह में तूफ़ान बहोत हैं

एक तुम ही नहीं मेरी जुदाई में परेशां
हम भी तेरी चाह में वीरान बहोत हैं

एक तर्क-ए-वफ़ा में उसे कैसे भूला दूँ
मुझ पर अभी उस शख्स के एहसान बहोत हैं

भर आई न आँखें तो मैं एक बात बताऊँ
अब तुझसे बिछड़ जाने के इमकान बहोत हैं..

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