हुस्न को चाँद, जवानी को कँवल कहते हैं
उनकी सूरत नज़र आए तो ग़ज़ल कहते हैं
उफ्फ़! वो मरमर से तराशा हुआ शफाफ बदन
देखने वाले उसे ताजमहल कहते हैं
पड़ गई पाँव में तक़दीर की ज़ंजीर तो क्या
हम तो उसको भी तेरी जुल्फ़ का बाल कहते हैं
मुझको मालूम नहीं इसके सिवा कुछ भी मोहसिन
जो सदी वस्ल में गुज़रे उसे पल कहते हैं..
उनकी सूरत नज़र आए तो ग़ज़ल कहते हैं
उफ्फ़! वो मरमर से तराशा हुआ शफाफ बदन
देखने वाले उसे ताजमहल कहते हैं
पड़ गई पाँव में तक़दीर की ज़ंजीर तो क्या
हम तो उसको भी तेरी जुल्फ़ का बाल कहते हैं
मुझको मालूम नहीं इसके सिवा कुछ भी मोहसिन
जो सदी वस्ल में गुज़रे उसे पल कहते हैं..
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