भूली बिसरी हुई यादों में कसक है कितनी
डूबती शाम के अतराफ़ चमक है कितनी
मंज़र-ए-गुल तो बस एक पल के लिए ठहरा था
आती जाती हुई सांसों में महक है कितनी
गिर के टूटा नहीं शायद वो किसी पत्थर पर
उसकी आवाज़ में ताबींदा खनक है कितनी
अपनी हर बात में वो भी है हसीनों जैसा
उस सरापे में मगर नोक पलक है कितनी
जाते मौसम ने जिन्हें छोड़ दिया है तनहा
मुझ में उन टूटते पत्तों की झलक है कितनी।।
डूबती शाम के अतराफ़ चमक है कितनी
मंज़र-ए-गुल तो बस एक पल के लिए ठहरा था
आती जाती हुई सांसों में महक है कितनी
गिर के टूटा नहीं शायद वो किसी पत्थर पर
उसकी आवाज़ में ताबींदा खनक है कितनी
अपनी हर बात में वो भी है हसीनों जैसा
उस सरापे में मगर नोक पलक है कितनी
जाते मौसम ने जिन्हें छोड़ दिया है तनहा
मुझ में उन टूटते पत्तों की झलक है कितनी।।
No comments:
Post a Comment